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 वैशाख पूर्णिमा: मांस खाने वाला ही अपवित्र नहीं क्रोध,व्यभिचार व छल भी इंसान को बनाती है अपवित्र

29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने राजसी जीवन छोड़ बने गए बुद्ध

06 वर्ष की कठिन परिश्रम के बाद मिली ज्ञान

Varanasi news: वैशाख पूर्णिमा जिसे बुद्ध पूर्णिमा भी कहते है। पूर्णिमा के दिन बुद्धत्व की प्राप्ति कर सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बने राजाशाही परिवार का युवराज देश दुनिया में अपना सन्देश दिया। 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) में राजा शुद्धोधन और  माया देवी । के परिवार में जन्में एक शाक्य राजकुमार सिद्धार्थ ने जन्म लिया। जो 29 वर्ष की आयु में राजमहल के सुख सुविधाओं का त्याग कर निकल लिए। लगभग 06 वर्ष के कठिन परिश्रम के बाद बोधत्व का ज्ञान हुआ।

बुद्धत्व प्राप्ति से महापरिनिर्वाण की प्राप्ति में बुद्ध पूर्णिमा का अलग महत्व है। इसे “त्रिविध पावन पर्व” भी कहते है।  राजमहल में सुख-सुविधाओं के बीच रहते हुए भी सिद्धार्थ ने संसार के दुःख और पीड़ा को देखा और उसे दूर करने का संकल्प लिया। 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने अपने राजसी जीवन का त्याग कर संन्यास का मार्ग अपनाया। छह वर्षों की कठोर तपस्या और ध्यान के बाद वैशाख पूर्णिमा के दिन  बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे “बुद्ध” अर्थात “जाग्रत” कहलाए।

इसके पश्चात, उन्होंने सारनाथ के मृगदाव (सारनाथ) में अपना पहला उपदेश दिया जिसे “धर्मचक्र प्रवर्तन” कहा जाता है। बुद्ध पूर्णिमा न सिर्फ भारत में अपितु दुनिया के कई अन्य देशों में भी पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। गौतम बुद्ध ने चार सूत्र दिए उन्हें ‘चार आर्य सत्य ‘(Four Noble Truths) के नाम से जाना जाता है । पहला है ‘दुःख’। दूसरा है ‘दुःख का कारण’। तीसरा है दुःख का निदान और चौथा मार्ग वह है जिससे दुःख का निवारण होता है। महात्मा बुद्ध ने बताया कि तृष्णा ही सभी दु:खों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण संसार की विभिन्न वस्तुओं की ओर मनुष्य प्रवृत्त होता है और जब वह उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता अथवा जब वे प्राप्त होकर भी नष्ट हो जाती हैं तब उसे दु:ख होता है। अत: तृष्णा को त्याग देने का मार्ग ही मुक्ति का मार्ग है।

बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग वह माध्यम है जो दुःख के निदान का मार्ग बताता है। उनका यह अष्टांगिक मार्ग ज्ञान, संकल्प, वचन, कर्म, आजीव, व्यायाम, स्मृति और समाधि के सन्दर्भ में सम्यकता से साक्षात्कार कराता है। यदि जीवन में इन सूत्रों को उतार लिया जाए तो हम कई प्रकार की परेशानियों से बच सकते हैं और सरलता से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं। गौतम बुद्ध ने मनुष्य के बहुत से दुखों का कारण उसके स्वयं का अज्ञान और मिथ्या दृष्टि बताया है। उन्होंने कहा कि केवल मांस खाने वाला ही अपवित्र नहीं होता बल्कि क्रोध, व्यभिचार, छल, कपट, ईर्ष्या और दूसरों की निंदा भी इंसान को अपवित्र बनाती है। मन की शुद्धता के लिए पवित्र जीवन बिताना जरूरी है।
इस दिन बौद्ध अनुयायी व्रत और उपवास रखते हैं और बुद्ध के उपदेशों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेते हैं।
बुद्ध पूर्णिमा न केवल भारत बल्कि कई अन्य देशों में भी मनाई जाती है। श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया, तिब्बत, भूटान, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन और नेपाल में भी यह दिन बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इन देशों में बुद्ध पूर्णिमा को वेसाक या वेसाख के नाम से जाना जाता है। यह दिन हमें बुद्ध के उन उपदेशों का याद दिलाता है जो अहिंसा, करुणा, सहिष्णुता और परोपकार की शिक्षा देते हैं। बुद्ध पूर्णिमा का संदेश आधुनिक समाज के लिए अत्यंत प्रासंगिक है, जहां शांति और सह-अस्तित्व की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। भगवान बुद्ध का धर्म प्रचार 40 वर्षों तक चलता रहा। अंत में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में 80 वर्ष की अवस्था में ई.पू. 483 में वैशाख की पूर्णिमा के दिन ही महानिर्वाण प्राप्त हुआ।

रिपोर्ट/ लेख: तेजबहादुर मौर्य शोधार्थी बीएचयू

मृत्युंजय सिंह

मैं मृत्युंजय सिंह पिछले कई वर्षो से पत्रकारिता के क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों में कार्य करने के उपरान्त न्यूज़ सम्प्रेषण के डिजिटल माध्यम से जुडा हूँ.मेरा ख़ास उद्देश्य जन सरोकार की ख़बरों को प्रमुखता से उठाना एवं न्याय दिलाना है.जिसमे आप सभी का सहयोग प्रार्थनीय है.

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